महिधर आदि के वेद भाष्य को मानना खुद को मूर्ख सिद्ध करना है ।

महिधर आदि के वेद भाष्य को मानना खुद को मूर्ख सिद्ध करना है ।

नमस्ते।

धर्म प्रेमी सज्जनों से अनुरोध है कि पोस्ट को ध्यानपूर्वक पढ़िएगा ताकि बात बुद्धि ग्रहण कर सके।

वेद पे अनेक भाष्य हो चुके है  जैसे कि विराट , महिधर, मैक्समूलर, सायण आदि, इन भाष्यकार ने ही वेद के तत्यपर पर को बिना ही समझे अर्थ का अनर्थ कर रखा है जिनके के कारण आज सामज मे अनेक भ्रांतियां फैली हुई है  इसके कुछ नमूने आज इस पोस्ट पे दिखता हु ताकि आप सत्य-असत्य का निर्णय स्वेम ही कर सके ।

इन भाष्यकारों मे से एक भाष्यकार हुआ है जिसका नाम महिधर है ।

महीधर भाष्य:-

गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥1॥

- यजुः॰ अ॰ 23। मं॰ 19॥

भाष्यम् - अस्य मन्त्रस्य व्याख्याने तेनोक्तम् -अस्मिन्मन्त्रे गणपतिशब्दादश्वो वाजी ग्रहीतव्य इति। तद्यथा महिषी यजमानस्य पत्नी यज्ञशालायां , पश्यतां सर्वेषामृत्विजामश्वसमीपे शेते। शयाना सत्याह - हे अश्व! गर्भधं गर्भं दधाति गर्भधं गर्भधारकं रेतः , अहम् आ अजानि , आकृष्य क्षिपामि। त्वं च गर्भधं रेतः आ अजासि आकृष्य क्षिपसि॥

भाषार्थ - (गणानां त्वा॰) इस मन्त्र में महीधर ने कहा है कि-गणपति शब्द से घोड़े का ग्रहण है। सो देखो महीधर का उलटा अर्थ कि 'सब ऋत्विजों के सामने यजमान की स्त्री घोड़े के पास सोवे, और सोती हुई घोड़े से कहे कि, हे अश्व! जिस से गर्भधारण होता है, ऐसा जो तेरा वीर्य है उस को मैं खैंच के अपनी योनि में डालूं तथा तू उस वीर्य को मुझ में स्थापन करनेवाला है॥

अब भला ऐसे ऐसे अश्लीलता युक्ति व यजुर्वेद के तत्यपर के अत्यंत विरुद्ध अर्थ करने से ही समाज मे वेदो को ले कर भ्रम फैला है ।

अब देखिए  सत्य अर्थ जो कि भारतीय ऋषि शैली मे किया गया अर्थ जो कि महर्षि दयानंद जी ने किया ।

अथ सत्योऽर्थः - गणानां त्वा गणपतिं हवामह इति ब्राह्मणस्पत्यं , ब्रह्म वै बृहस्पतिर्ब्रह्मणैवैनं तद्भिषज्यति , प्रथश्च यस्य सप्रथश्च नामेति॥

- ऐत॰ पं॰ 1। कं॰ 21॥

प्रजापतिर्वै जमदग्निः सोऽश्वमेधः॥ क्षत्रं वाश्वो विडितरे पशवः॥ क्षत्रस्यैतद्रूपं यद्धिरण्यम्॥ज्योतिर्वै हिरण्यम्॥

- श॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 2। कं॰ 14, 15, 16, 17॥

न वै मनुष्यः स्वर्गं लोकमञ्जसा वेदाश्वो वै स्वर्गं लोकमञ्जसा वेद॥

- श॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 12। कं॰ 1।

राष्ट्रमश्वमेधो ज्योतिरेव तद्राष्टे दधाति॥ क्षत्रायैव तद्विशं कृतानुकरामनुवर्त्तमानं करोति॥ अथो क्षत्रं वा अश्वः क्षत्रस्यैतद्रूपं यद्धिरण्यं , क्षत्रमेव तत्क्षत्रेण समर्धयति॥ विशमेव तद्विशा समर्धयति॥

- श॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 11। कं॰ 15, 16, 17॥

गणानां त्वा गणपतिं हवामह इति। पत्न्यः परियन्त्यपह्नुवत एवास्मा एतदतोऽन्येवास्मै ह्नुवतेऽथो धुवत एवैनं त्रिः परियन्ति , त्रयो वा इमे लोका एभिरेवैनं लोकैर्धुवते , त्रिः पुनः परियन्ति षट् सम्पद्यन्ते , षड् वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं धुवते॥ अप वा एतेभ्यः प्राणाः क्रामन्ति , ये यज्ञे धुवनं तन्वते , नवकृत्वः परियन्ति , नव वै प्राणाः प्राणानेवात्मं धत्ते , नैभ्यः प्राणा अपक्रामन्त्याहमजानि गर्भधमात्वमजासि गर्भधमिति , प्रजा वै पशवो गर्भः प्रजामेव पशूनात्मं धत्ते॥

- श॰ कां॰ 13। अ॰ 2। ब्रा॰ 2। कं॰ 4, 5॥

भाष्यम् - ( गणानां त्वा॰) वयं गणानां गणनीयानां पदार्थसमूहानां गणपतिं पालकं स्वामिनं (त्वा) त्वां परमेश्वरं (हवामहे) गृह्णीमः। तथैव सर्वेषां प्रियाणामिष्टमित्रादीनां मोक्षादीनां च प्रियपतिं त्वेति पूर्ववत्। एवमेव निधीनां विद्यारत्नादिकोशानां निधिपतिं त्वेति पूर्ववत्। वसत्यस्मिन् सर्वं जगद्वा यत्र वसति स वसुः परमेश्वरः , तत्सम्बुद्धौ हे वसो , परमेश्वरपरत्वम्। सर्वान् कार्य्यान् भूगोलान् स्वसामर्थ्ये गर्भवद्दधातीति स गर्भधस्तं त्वामहं भवत्कृपया आजानि , सर्वथा जानीयाम्। (आ त्वमजासि) हे भगवन्! त्वं तु आ समन्ताज्ज्ञातासि। पुनर्गर्भधमित्युक्त्या वयं प्रकृतिपरमाण्वादीनां गर्भधानामपि गर्भधं त्वां मन्यामहे। नैवातो भिन्नः कश्चिद् गर्भधारकोऽस्तीति।

एवमेवैतरेयशतपथब्राह्मणे गणपतिशब्दार्थो वर्णितः - ( ब्राह्मणस्पत्यं॰) अस्मिन् मन्त्रे ब्रह्मणो वेदस्य पतेर्भावो वर्णितः। ब्रह्म वै बृहस्पतिरित्युक्तत्वात्। तेन ब्रह्मोपदेशेनैवैनं जीवं यजमानं वा सत्योपदेष्टा विद्वान् भिषज्यति रोगरहितं करोति। आत्मनो भिषजं वैद्यमिच्छतीति। यस्य परमेश्वरस्य प्रथः सर्वत्र व्याप्तो विस्तृतः , सप्रथश्च , प्रकृत्याकाशादिना प्रथेन स्वसामर्थ्येन वा सह वर्त्तते स सप्रथस्तदिदं नामद्वयं तस्यैवास्तीति। प्रजापतिः परमेश्वरो वै इति निश्चयेन , ' जमदग्निसंज्ञो 'ऽस्ति।

अत्र प्रमाणम् -

जमदग्नयः प्रजमिताग्नयो वा , प्रज्वलिताग्नयो वा , तैरभिहुतो भवति॥

- निरु॰ अ॰ 7। खं॰ 24॥

भाष्यम् - इमे सूर्य्यादयः प्रकाशकाः पदार्थास्तस्य सामर्थ्यादेव प्रज्वलिता भवन्ति। तैः सूर्य्यादिभिः कार्य्यैस्तन्नियमैश्च कारणाख्य ईश्वरोऽभिहुतश्चाभिमुख्येन पूजितो भवतीति। यः स जमदग्निः परमेश्वरः (सोऽश्वमेधः) स एव परमेश्वरोऽश्वमेधाख्य इति प्रथमोऽर्थः।

अथापरः - क्षत्रं वाश्वो विडितरे पशव इत्यादि। यथाऽश्वस्यापेक्षयेतर इमेऽजादयः पशवो न्यूनबलवेगा भवन्ति , तथा राज्ञः सभासमीपे विट् प्रजा निर्बलैव भवति। तस्य राज्यस्य , यद्धिरण्यं सुवर्णादिवस्तु ज्योतिः प्रकाशो वा न्यायकरणमेतत्स्वरूपं भवति। यथा राजप्रजालङ्कारेण राजप्रजाधर्मो वर्णितः , तथैव जीवेश्वरयोः स्वस्वामिसम्बन्धो वर्ण्यते।

न वै मनुष्यः केवलेन स्वसामर्थ्येन सरलतया स्वर्गं परमेश्वराख्यं लोकं वेद , किन्त्वीश्वरानुग्रहेणैव जानाति। अश्वो यत ईश्वरो वा अश्वः॥

- श॰ कां॰ 13। अ॰ 3। ब्रा॰ 8। कं॰ 8॥

अश्नुते व्याप्नोति सर्वं जगत्सोऽश्व ईश्वरः।

इत्युक्तत्वादीश्वरस्यैवात्राश्वसंज्ञास्तीति।

अन्यच्च (राष्ट्रं वा॰) राज्यमश्वमेधसंज्ञं भवति। तद्राष्ट्रे राज्यकर्मणि ज्योतिर्दधाति। तत्कर्मफलं क्षत्राय राजपुरुषाय भवति। तच्च स्वसुखायैव विशं प्रजां कृतानुकरां स्ववर्त्तमानामनुकूलां करोति। अथो इत्यनन्तरं क्षत्रमेवाश्वमेधसंज्ञकं भवति। तस्य यद्धिरण्यमेतदेव रूपं भवति। तेन हिरण्याद्यन्वितेन क्षत्रेण राज्यमेव सम्यग् वर्धते , न च प्रजा। सा तु स्वतन्त्रस्वभावान्वितया विशा समर्धयति। अतो यत्रैको राजा भवति , तत्र प्रजा पीडिता जायते। तस्मात् प्रजासत्तयैव राज्यप्रबन्धः कार्य्य इति।

(गणानां॰) स्त्रियोऽप्येतं , राज्यपालनाय , विद्यामयं सन्तानशिक्षाकरणाख्यं यज्ञं , परितः , सर्वतः प्राप्नुयुः। प्राप्ताः सत्योऽस्य सिद्धये यदपह्नवाख्यं कर्माचरन्ति , अतः कारणादेतदेतासामन्ये विद्वांसो दूरीकुर्वन्ति। अथो इत्यनन्तरं य एनं विचालयन्ति , तानप्यन्ये च दूरीकुर्य्युः। एवमस्य त्रिवारं रक्षणं सर्वथा कुर्य्युः। एवं प्रतिदिनमेतस्य शिक्षया रक्षणेन चात्मशरीरबलानि सम्पादयेयुः।

ये नराः पूर्वोक्तं गर्भधं परमेश्वरं जानन्ति , नैव तेभ्यः प्राणा बलपराक्रमादयोऽपक्रामन्ति। तस्मान्मनुष्यस्तं गर्भधं परमेश्वरमहमाजानि समन्ताज्जानीयामितीच्छेत्। (प्रजा वै पशवः॰) ईश्वर- सामर्थ्यगर्भात् सर्वे पदार्था जाता इति योजनीयम्। यश्च पशूनां प्रजानां मध्ये विज्ञानवान् भवति , स इमां सर्वां प्रजामात्मनि , अतति सर्वत्र व्याप्नोति तस्मिन् जगदीश्वरे वर्त्तते इति धारयति॥

इति संक्षेपतो गणानां त्वेति मन्त्रस्यार्थो वर्णितः। अस्मान्महीधरस्यार्थोऽत्यन्तविरुद्ध एवास्तीति मन्तव्यम्।

भाषार्थ - (गणानां त्वा॰) ऐतरेय ब्राह्मण में गणपति शब्द की ऐसी व्याख्या की है कि यह मन्त्र ईश्वरार्थ का प्रतिपादन करता है। जैसे ब्रह्म का नाम बृहस्पति, ईश्वर तथा वेद का नाम भी ब्रह्म है। जैसे अच्छा वैद्य रोगी को औषध देके दुःखों से अलग कर देता है, वैसे ही परमेश्वर भी वेदोपदेश करके मनुष्य को विज्ञानरूप ओषधि देके अविद्यारूप दुःखों से छुड़ा देता है। जो कि-'प्रथ' अर्थात् विस्तृत, सब में व्याप्त, और 'सप्रथ' अर्थात् आकाशादि विस्तृत पदार्थों के साथ भी व्यापक हो रहा है। इसी प्रकार से यह मन्त्र ईश्वर के नामों को यथावत् प्रतिपादन कर रहा है। ऐसे ही शतपथ ब्राह्मण में भी-राज्यपालन का नाम 'अश्वमेध' राजा का नाम 'अश्व' और प्रजा का नाम घोड़े से भिन्न 'पशु' रक्खा है। राज्य की शोभा धन है, और ज्योति का नाम हिरण्य है।

तथा 'अश्व' नाम परमेश्वर का भी है, क्योंकि कोई मनुष्य स्वर्गलोक को अपने सहज सामर्थ्य से नहीं जान सकता, किन्तु अश्व अर्थात् जो ईश्वर है, वही उन के लिये स्वर्गसुख को जनाता और जो मनुष्य प्रेमी धर्मात्मा हैं, उन को सब स्वर्गसुख देता है।

तथा (राष्ट्रमश्वमेधः॰) राज्य के प्रकाश का धारण करना सभा ही का काम, और उसी सभा का नाम राजा है। वही अपनी ओर से प्रजा पर कर लगाती है। क्योंकि राज ही से राज्य और प्रजा ही से प्रजा की वृद्धि होती है।

(गणानां त्वा॰) स्त्री लोग भी राज्यपालन के लिए विद्या की शिक्षा सन्तानों को करती रहें। जो इस यज्ञ को प्राप्त होके भी सन्तानोत्पत्ति आदि कर्म में मिथ्याचरण करती हैं, उन के इस कर्म को विद्वान् लोग प्रसन्न नहीं करते। और जो पुरुष सन्तानादि की शिक्षा में आलस्य करते हैं, अन्य लोग उन को बांध कर ताड़ना देते हैं। इस प्रकार तीन, छः वा नव वार इस की रक्षा से आत्मा शरीर और बल को सिद्ध करें। जो मनुष्य परमेश्वर की उपासना करते हैं, उनके बलादि गुण कभी नष्ट नहीं होते। (आहमजानि॰) प्रजा के कारण का नाम 'गर्भ' है उस के समतुल्य वह सभा, प्रजा और प्रजा के पशुओं को, अपने आत्मा में धारण करे। अर्थात् जिस प्रकार अपना सुख चाहें, वैसे ही प्रजा और उस के पशुओं का भी सुख चाहें॥

(गणानां त्वा॰) जो परमात्मा गणनीय पदार्थों का पति अर्थात् पालन करने हारा है, (त्वा) उस को (हवामहे) हम लोग पूज्यबुद्धि से ग्रहण करते हैं। (प्रियाणां॰) जो कि हमारे इष्ट मित्र और मोक्षसुखादि का प्रियपति तथा हम को आनन्द में रख कर सदा पालन करने वाला है, उसी को हम लोग अपना उपास्यदेव जान के ग्रहण करते हैं। (निधीनां त्वा॰) जो कि विद्या और सुखादि का निधि अर्थात् हमारे कोशों का पति है, उसी सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को हम अपना राजा और स्वामी मानते हैं।

तथा जो कि व्यापक होके सब जगत् में और सब जगत् उसमें बस रहा है, इस कारण से उस को 'वसु' कहते हैं। हे वसु परमेश्वर! जो आप अपने सामर्थ्य से जगत् के अनादिकारण में गर्भ धारण करते हैं, अर्थात् सब मूर्तिमान् द्रव्यों को आप ही रचते हैं, इसी हेतु से आप का नाम 'गर्भध' है।

(आहमजानि) मैं ऐसे गुणसहित आपको जानूं। (आ त्व॰) जैसे आप सब प्रकार से सब को जानते हैं, वैसे ही मुझ को भी सब प्रकार से ज्ञानयुक्त कीजिये। (गर्भधं) दूसरी वार 'गर्भध' शब्द का पाठ इसलिये है कि जो जो प्रकृति और परमाणु आदि कार्यद्रव्यों के गर्भरूप हैं, उन में भी सब जगत् के गर्भरूप बीज को धारण करनेवाले ईश्वर से भिन्न दूसरा कार्य जगत् की उत्पत्ति स्थिति और लय करनेवाला कोई भी नहीं है॥

यही अर्थ ऐतरेय, शतपथ ब्राह्मण में कहा है। विचारना चाहिए कि इस सत्य अर्थ के गुप्त होने और मिथ्या नवीन अर्थों के प्रचार होने से मनुष्यों को भ्रान्त करके वेदों का कितना अपमान कराया है। जैसे यह दोष खण्डित हुआ, वैसे इस भाष्य की प्रवृत्ति से इन सब मिथ्या दोषों की निवृत्ति हो जायेगी।

दोनों के किए भाष्य मे कितना फर्क है पाठक स्वयं अनुमान लगा लेवे ।  महर्षि दयानंद जी ने यहाँ ब्रह्मानग्रंथ व व्याकरण आदि के अनुकूल व समाधिस्थ हो के भाष्य किया है तो वोही महिधर ने  कैसा अनर्थ कर रखा है

अब ऐसे मे ही कोई कोई नवीन्वेदन्ति कह देता हैं कि  महीधर के भाष्य प्रामाणिक है , अब भला सोचा जाए कि जिन नवीन्वेदन्ति के लिए जगत आदि मिथ्या ही है वो भला सत्य असत्य का क्या पता लगा सकते है भला क्यो की इस लोग मे उसके लिए सब मिथ्या ही है 😂😂

-निशांत आर्य

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